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कविता

इतिहास

आस्तीक वाजपेयी


हरे आईने के पीछे खड़े लोगों
मुझे क्षमा कर दो।
कोई भाग गया था
शायद मैं,
कोई भाग गया था।
इतिहास की कोठरी से
मुझे निकाल दो।
कहीं यह सर्वगत परिष्कार
मुझे खा न ले।
तुम कहते तो रुक जाता
मेरी याद भाग गई।
काली सड़क पर,
मंदिर के भीतर फूलों में
पानी में डूबे पाईप पर
खिलौनों के जीवन में
धूप की याद में।
मुझसे एक बार तो कह देते कि
यहाँ तेरे लिए भी जगह है।
तो शायद रुक ही जाता
फिर यह थमा समय
बिल्ली के बच्चे की आँख के
हर आँसू में जमा न होता।
गर्मी के कटे पेड़ों के बीच
उसके लिए जगह नहीं थी,
धूप में खड़ी
गाय को मैंने एक रोटी
खिलाई थी।
उस समय भी खटकता था यह ब्रह्मांड
देवताओं जो तुमने बताया नहीं था कि
जिद पर बदलता है और फिर नहीं
हम बदलने न देते
यदि पता होता
कि यह हमसे हो गया
तो किसी कटे पेड़ से
चिपक भी जाते
जिसमें गिलहरी की याद है।
और चिड़ियों से हर बार
स्वर्ग में उड़ जाने की|
कामना नहीं करते।
कविता वह समय है
जिसे इतिहास देख भले ले,
पर दोहरा नहीं सकता।

 


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